4 फ़रवरी 2017

स्वछता में सरस्वती का वास

स्वछता में सरस्वती का वास
हम हिन्दुस्तान के लोग स्नान किये बिना भोजन नहीं करते. चार लोटे पानी हो तो काफी है. लेकिन इतने से संतोष नहीं मानना चाहिए. ठीक तरह स्नान जरूर करना चाहिए. अगर गाँव में पानी न हो तो सबको मिलकर इंतज़ाम करना चाहिए. गाँव में स्वछता रखेंगे तो वहां धर्मं रहेगा. जिस गाँव में स्वछता होगी, वहा सरस्वती बसेगी. जहाँ गन्दगी होती है वहां विद्या नहीं आती. सरस्वती का आसन कमल है. वह मैले में कभी नहीं बैठती. इसी तरह अगर गाँव में उद्योग नहीं चलते, सब चीजें बाहर से मंगवाई जाती हैं तो आप की लक्ष्मी आप के गाँव में नहीं रहेगी. आपके गाँव की जमीन चाँद लोगों के हाथ में रहेगी और बाकी लोगों को पूरा खाना नहीं मिलेगा, तो गाँव में शक्ति भी नहीं रहेगी. इस्ल्लिये गाँव में सरस्वती, लक्ष्मी और शक्ति तीनों रखना चाहते हैं, तो गाँव में स्वछता रखनी होगी.
संयम की आवश्यकता
इसी तरह हमें गाँव में संयम का वातावरण लाना होगा. आज जनसँख्या तेजी से बढ़ रही है, यह ठीक नहीं. जनसँख्या बढ़ने का दर नहीं. परन्तु वह जिस ढंग से बढ़ रही है, वह ठीक नहीं. यदि इसी तरह विषय-वासना बढे, हम संयम का पालन  न करें और भोग-विलास में ही डूबे रहें, तो निर्वीर्य तो हो ही जायेंगे. दुनिया के सामने विकत समस्या खड़ी हो जायेगी. फिर अहिंसा टिक न सकेगी. मानव मानव को कत्ल करने लगेगा. आज तो लड़ाई में बेखटके हत्या होती है. पर कल डॉक्टर कहेगा कि मनुष्य का ताज़ा मांस पुष्टिकारक होता है तो लोग उसे भी खाना शुरू कर देंगे. आपने सुना होगा कि कई जानवर अपने बच्चों को खा जाते हैं. हम कहते हैं कि मनुष्य भोग-विलास न छोड़ेगा तो यही हालत हो जायेगी. इसलिए आदर्श गाँव को संयमी होना बहुत जरूरी है.
दैनिक प्रार्थना जरूरी
आदर्श गाँव में रोज प्रार्थना होनी चाहिए. इसके लिए गाँव से बाहर स्वच्छ और खुली हवादार जगह हो. छोटा सा कम्पाउंड भी हो सकता है ताकि कुत्ते आदि जानवर उस स्थान पर जाकर गंदा न करें. वहां फूल वगैरह के पेड़ भी लगा सकते हैं. प्रार्थना के लिए जाते समय लोग बैठने के लिए अपना-अपना आसन ले जा सकते हैं. वहां भाई-बहन मिलकर संतों के भजन गायें और कोई प्रार्थना या मौन प्रार्थना रोज किया करें. जिसके जीवन में ज्ञान सुनने को नहीं मिलता, वह शुष्क जीवन है. रोज देह को खाना मिले, इतने से नहीं बनता. अंतरात्मा को भी ज्ञान का आहार, संस्कार देना आवश्यक है.
बगैर शांति के समृद्धि व्यर्थ
फिर गाँव में शांति होनी चाहिए. शहरों में दिन-रात जो आवाज़ चलती है, उससे दिमाग बिगड़ता है. उसके कारण लोग पागल तक हो जाते हैं, और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती है, ऐसा वैज्ञानिकों का कहना है. अमेरिका में यह एक बड़ी समस्या है. वह तो समृद्ध देश कहलाता है, फिर भी वहां के देशवासियों के जीवन में शान्ति नहीं है. शांति के अभाव में बाकी सारी चीजें काम नहीं देतीं. इसलिए आदर्श गाँव में शांति होना अत्यंत आवश्यक है.
ग्रामीण औषधों की प्राथमिकता
स्वस्थ ग्रामीण ही गाँव की कुछ उन्नति कर सकते हैं. इसलिए आदर्श गाँव के लिए स्वास्थ्य भी एक आवश्यक चीज है. अक्सर हम अपनी यात्रा के सिलसिले में गांववालों को गाँव में अस्पताल खोलने की मांग करते पाते हैं. किन्तु हम नहीं समझते कि एलोपेथी के अस्पताल गाँव के लिए लाभदायक होंगे. वैसे किसी भी चिकित्सा के अच्छे औषधों को लेने से हम इनकार नहीं करते. फिर भी जहाँ तक हो, गाँव के ही औषधों से उनका स्वास्थ्य सुधारे, यही चाहते हैं. मैंने पचासों बार जिक्र किया है कि गाँव-गाँव में वनस्पतियों का बगीचा होना चाहिए. वहां सुलभ जडी-बूटियाँ पैदा करनी चाहिए, जिससे लोगों के बहुत से रोग दुरुस्त किये जा सकें. हिन्दुस्तान का औसत गाँव पांच सौ जनसँख्या का होता है. हमने हिसाब लगाया कि ऐसे गाँव के लिए एक एकड़ का वनस्पति का बगीचा पर्याप्त है. बात इतनी ही है कि इस काम का जानकार मनुष्य होना चाहिए.
स्वास्थ्य योजना का मुख्य  पहलू: रोग ही न हो !
किन्तु रोग निवारण की योजना को हम नंबर दो का महत्व देते हैं और रोग ही न हो इसे नंबर एक का महत्व. रोग न होने के लिए सबसे महत्व की बात है ग्रामीणों का आहार सुधार. जिसे युक्ताहार कहते हैं, वैसा पूर्ण आहार सबको मिलना चाहिए. जहाँ मजदूरों को पैसे मैं मजदूरी दी जाती है, वहां उन्हें अनाज हासिल करने में भी मुश्किल पड़ती है. आहार में अनाज ही पर्याप्त वस्तु नहीं है. और भी बहुत-सी चीजों की जरूरत होती है. मनुष्य को हर रोज ताज़ी तरकारियाँ काफी मात्रा में मिलनी चाहिए और दूध भी पर्याप्त मिलना चाहिए. हमने हिसाब लगाया कि हर मनुष्य को एक पाव दूध मिलना ही चाहिए. इसके अलावा गुड और थोडा तेल भी होना चाहिए. जब इतनी चीजें मिलेंगी तब शरीर स्वयमेव अच्छा रहेगा और बहुत सी बीमारियाँ टलेंगी.
व्यसन मुक्ति
आदर्श गांववालों को व्यसनों से मुक्त होना पड़ेगा. शराब, गांजा, अफीम, बीडी आदि बुरी चीजें छोड़ देनी होंगी. इन चीजों से शरीर को कोई लाभ नहीं, बल्कि सब प्रकार से हानि ही है. हमारी समझ में नहीं आता कि गांववाले इन चीजों का क्यों इस्तेमाल करते हैं ?
युक्त आहार, युक्त विहार
इस तरह आरोग्य के लिए युक्त आहार और युक्त विहार रखने के बाद भी अगर रोग हुए तो हम प्रथम महत्त्व 'पंचकर्म' या प्राकृतिक चिकित्सा को देंगे. एनिमा, मालिश आदि योजना गाँव-गाँव में आसानी से हो सकती है. फिर लंघन (उपवास) का भी कुछ महत्व है. इस तरह रोग निवारण के लिए पंचकर्म और जडी बूटियों का बगीचा, ये दो बातें करनी होंगी. तीसरी बात भक्ष्य-अभक्ष्य विचार है. जिसे हम 'आहार शास्त्र कहते हैं, उसका ज्ञान सबको होना चाहिए. कौन सी चीज कहा चाहिए और कौन सी नहीं इसकी जानकारी सबको होनी चाहिए.

4 मई 2011

gaav-gaav me swarajya

गाँव-गाँव  में स्वराज्य 
स्वराज्य के बाद अपनी हालत सुधारना हमारे हाथ में है. यह समझना भूल है की जैसे पहले मुसलमान या अंग्रेजो का राज्य था, वैसे अब कांग्रेस का राज्य आ गया है. मुसलमानों, अंग्रेजो या किसी राजा के राज्य आपसे वोट मांगने नहीं आये थे. वे तो पुराने राज्य हो गए. वे राजाओं के राज्य थे, सुलतानो के राज्य थे.
आप राजा, सरकार नौकर 
लेकिन आज जो हमारा स्वराज्य है, वह लोगो का राज्य है. यहाँ राज्य चलाने वाले लोगों के चुने हुए नौकर हैं. आप सब लोगों को सत्ता दी गयी है की अपना राज्य आप जैसा चलाना चाहते हैं,  वैसा चलाईये, और अपना राज्य चलाने के लिए आपको कौन-कौन-से नौकर रखने हैं, यह आप ही तय कीजिये. इस तरह आपसे वोट मांगा गया और आपने उसे दिया भी. इस तरह पांच साल के लिए आपने नौकर कायम किये, जैसे किसान सालभर के लिए नौकर रखता है. अगर उसने अच्छा काम किया, तो उसे फिर से रखता है और नहीं किया तो उसे निकाल भहर कर दूसरा नौकर रखता है, वैसे ही आपने पांच साल के लिए इन नौकरों को चुना है. आपको लगे की इनका काम अच्छा चलता है, तो आप पुन: उन्हें चुनेंगे, नहीं तो दूसरो को चुनेंगे.
इसका मतलब यह की यहाँ जो कोइ बैठे हैं, सबके सब बादशाह हैं, स्वामी हैं. लेकिन आपमें से हर व्यक्ति अलग-अलग स्वामी नहीं है, सब मिलकर स्वामी हैं. इस तरह आप स्वामी तो बन गए, फिर भी आपके पास सत्ता है, इसका भान नहीं है. अवश्य ही हिन्दुस्तान के लोग समझदार हैं. फिर भी वर्षों से उन्हें गुलामी की आदत पड़ गयी है और वे सोचते हैं की सरकार ही माँ-बाप की तरह हमारी चिंता करेगी. किन्तु अब उन्हें यह अनुभव होना जरूरी है की वास्तव में सत्ता हमारे हाथ में आयी है. क्या माता को मातृत्व का अधिकार कोइ देता है ? माता तो स्वयं ही अपने में मातृत्व का अनुभव करती है. क्या शेर को किसी ने जंगल का राजा बनाया है ? वह तो खुद अपना अधिकार महसूस करता है. इसी तरह ग्राम स्वराज्य की शक्ति का लोगों को अन्दर से भान होना चाहिए. प्रश्न है की वह कैसे हो ? क्या गाँव-गाँव के लोग दिल्ली का राज्य चलाएंगे ? गाँव-गाँव के लोग तो गाँव-गाँव का राज्य चलाएंगे. तब उन्हें राज्य चलाने का अनुभव हो जाएगा. 
विनोबा

22 मार्च 2011

gaav kaa arthshaastra

गाव का अर्थशास्त्र
अनाज ऐसी चीज है, जिसके बिना किसी का कोई काम नही चल सकता. वह सबको मिलना चाहिये. वह महान्गा भी बिक नही सकता. सच तो यह है कि जैसे हवा, पानी सबको मुफ़्त मिलते है, वैसे ही अनाज भी बिना दं मिलना चाहिये. और यदि मुफ़्त मिल ही न सके तो उसका दं इतना काम होना चाहिये कि मुफ़्त जैसा मालूम हो.

अनाज की कीमत : खतरनाक कल्पना
वास्तव मे अनाज की कीमत की कल्पना ही बडी खतरनाक है. उसे सर्वथा छोड देना चाहिये. इसी घातक कल्पना के शिकार होकर आज के कितने ही किसान अपने खेत मे तम्बाकू, गणना, जूत, कपास, हल्दी जैसी ज्यादा दाम देने वाली चीजे बोते है. अनाज की कीमत बडाने की मान्ग के बावजूद वे जानते है कि वह बहुत ज्यादा बढ नही सकती. क्योकि जो चीज सबको चाहिये, बेहद महान्गी नही हो सकती. किन्तु यह भी ज्यादा दिन चल नही सकता. क्योकि दिन पर दिन जनसंख्या बढ रही है और उसके लिये खाद्य की पूर्ती करना हमारे लिये अनिवार्य है. तम्बाकू तो खाद्य वस्तु नही, वह बुरा व्यसन है. गन्ना, हल्दी जैसी खाद्य चीजे और जूट, कपास जैसी नियोप्योगी चीजे भी अनाज का स्थान नही ले सकती. तब अधिक-से-अधिक जमीन का उपयोग अनाज के लिये करना ही होगा. शायद दूसरी चीजे बोना बन्द कर दे या कम-से-कम बोनी पडे.
कितने ही गाव वाले गाव का ख्याल न कर पैसे के लोभ मे दो-चार महीने का अनाज अपने पास रखकर शेष अपनी पूरी खडी फ़सल् नगर वालो के हाथ मे बेच देते है और जिस किसी तरह अपना गुजारा चलाते है. यह भी गलत चीज है. मान लीजिये, अगले साल बारिश न होने से फ़सल न हुई तो उन्हे वही अनाज ज्यादा दाम देकर खरीदना होगा. यदि ज्यादा पैसा पास न रहा तो आधा पेट ही खाना होगा. फ़िर आधा पेट खाकर काम करने से फ़सल भी कम आयेगी. इस तरह यह सारा केवल मोहजाल है. फ़िर यह भी सोचना होगा कि हिन्दुस्तान मे सौ मे से अस्सी मनुष्य (अब सत्तर) गाव मे रहते है. मान लीजिये, सौ को सौ सेर अनाज चाहिये, तो नब्बे सेर अनाज गाव मे ही रखना होगा और दस सेर बाहर नगरो मे भेजना होगा. अनुभव यही है कि नगर के दो मनुष्यो के बराबर गाव का एक मनुष्य पडता है. गाव का लडका जितना खायेगा, उतना नगर का जवान नही खा सकेगा. क्योकि उसको खाना पचता ही नही. जो काम ही नहीए करते, पसीना नही बहाते, उन्हे खाना क्या पचेगा ? अत: गाव मे पैदा हुआ अनाज ९० प्रतिशत गाव मे ही रख कर १० प्रतिशत ही बाहर भेजना चाहिये. गाव के पास दो साल का अनाज होना चाहिये.

जीवन पैसे के आधार पर न रखे
सच तो यह है कि किसान को पैसे के आधार पर अपना जीवन ही नही रखना चाहिये. जहा वह अनिवार्य हो जाय, वहा उस पैसे की पूर्ति के लिये दूसरे उद्योग चलाने चाहिये. उन उद्योगो से बना माल नगरो मे जाना चाहिये और वह महान्गा भी होना चाहिये. इस तरह वे पैसे की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति कर सकते है. वैसे गाव के सारे व्यवहार विनिमय श्रम पर ही करने चाहिये. मान लीजिये, गाव को एक शिक्षक चाहिये. वह पूछेगा : "तनख्वाह क्या दोगे ? तो आपको यही कहना चाहिये कि 'हमारे गाव मे पैसा नही होता. हम तो साल भर की अपनी-अपनी फ़सलो मे से थोडा-थोडा हिस्सा दे देङ्गे और एक एकड जमीन देङ्गे, जिस पर मेहनत करके आप फ़ल, तरकारी और कपास पैदा करे. उसमे एक कुआ खुदवा देङ्गे. अपना कपडा आप स्वयम तैयार कर ले.

जमीन को पैसे का साधन बनाना अभिशाप
पैसे के आधार पर जीवन रखने के अभिशापस्वरूप ही आज गाव मे जमीन पैसे का साधन मानी जाने लगी है. किन्तु वह पैसे की चीज नही, प्राण की चीज है. वह हमारी माता है. वह सबके पोषण का ही साधन हो सकती है. जमीन को पैसे का साधन बनाने का ही अभिशाप है कि आज उसे पैसेवालो ने छीन लिया है.होता यह है कि घर मे शादी है,तो दो सौ लिखवाकर सौ रुपये कर्ज लेना पडता है. दिन पर दिन ब्याज से वे रुपये बढते जाते है और आखिर दो सौ के बदले पाच एकड जमीन देनी होती है. इस तरह जमीन की पैसे मे कीमत हो जाने से बेचारा किसान बेहाल हो उठता है. उसके लिये तमिल का 'कल्याणं' सर्वनाश मे बदल जाता है.
वास्तव मे जमीन का मूल्य रुपयो मे कभी नही हो सकता. यदि दस हजार रुपये के नोटो को खेत मे दबायेङ्गे, ऊपर से पानी सीचेङ्गे, तो क्या फ़सल हो जायेगी ? मिट्टी की कीमत पैसे मे नही हो सकती. मिट्टी से तो खाने की चीजे मिलती है, पैसा नही. पैसा तो नासिक के छापाखाना मे बनता है. एक रुपये का नोट छापने मे जितना श्रम लगता है, उतना ही श्रम हजार का छापने मे भी लगता है. सिर्फ़ दो-तीन शून्य जोड दिये तो सौ हजार बन जाता है. किन्तु एक रुपये के अनाज का सौ रुपये का अनाज बना हो तो सौ गुणा श्रम करना होता है.
यह सब देखते हुए गाव वालो को सुखी होने के लिये निम्नलिखित तीन-चार चीजे करनी होङ्गी : १ जमीन को कभी पैसे का आधार न बनाये, २ पैसे की ज्यादा जरूरत न रखे, ३ थोडा पैसा चाहिये तो उसके लिये गाव मे उद्योग चलाये और उनसे बनी चीजे बाहार ज्यादा दाम पर बेचे, ४ गाव मे सबको जमीन मिले, संक्षेप मे ग्रामीण अर्थशास्त्र की यही रूपरेखा है.
विनोबा

10 मार्च 2011

gaav kaa arthashaastra


ग्राम स्वावलम्बन 
कोइ भी गाव तभी आदर्श मना जा सकेगा, जो अपने दैनिक निर्वाह  की चीजो मे स्वावलम्बी होगा. गाव को चाहिये कि यह अपने नित्य के उपयोग की अधिक से अधिक चीजे गाव मे बना ले. उन मे अनाज तो प्रमुख चीज है ही. गाव चाहे तो आसानी से और समज़दारी से उस क्षेत्र मे सदैव आत्मनिर्भर रह सकता है.
वस्त्र स्वावलम्बन 
दूसरी चीज है वस्त्र स्वावलम्बन . कहा जाता है कि पहली आवश्यकता अन्न की है और दूसरी वस्त्र की. लेकिन मानव  संस्कृति का विकास इस तरह हुआ है कि कपडो की आवश्यकता नंबर एक है और खाने के अन्न का नंबर दो, ऐसा कहने का मौका आता है. मै चार दिन भूखा रह सकता हू, लेकिन आपके सामने आधा  घण्टा नाङ्गा नही रह सक्ता और न बेठ सकता हू. इसलिये आपके ध्यान मे आयेगा कि कपडे की सान्स्कृतिक आवश्यकता है. ठण्ड से रक्षा करने के लिये, धूप से बचने के लिये कपडे की भौतिक आवश्यकता होती, तो उसका स्थान द्वितिय होता और अन्न का पहला. लेकिन स्थिति यहा तक है कि लाश को भी कपडे की आवश्यकता होती है. मरने के बाद भी खाने की आवश्यकता की कल्पना क्या आप कर सकते है ? इस तरह संकृति के खयाल से कपडा उचे दाम मे बेथता है. उसके बारे मे जो गाव पराधीन होगा, वह सपने मे भी सुखी नही हो सकता.
इसलिये गाववालो को संकल्प करना होगा कि चाहे दुनियाभर मे मिले चलती हो, उसका कपडा सस्ता पडता हो, वह आपको मुफ़्त भी मिले, बाहर का कपडा लेने वाले को दो आना इनाम भी मिले तो भी हम अपने गाव का, अपने हाथ का बना कपडा ही पहनेन्गे. हम वस्त्र के विषय मे स्वावलम्बी बनेङ्गे, तभी हमारे गाव का विकास होगा. 
नित्योपयोगी चीजे स्वयम तैयार करे 
इसके लिये हमे गाव मे ही कपास पैदा करनी होगी और उसका कपडा गाव मे ही बनाना होगा. उससे गाव को उद्योग मिलेङ्गे. भाई खेती पर काम करेङ्गे, तो क्या बहने घर पर खाली बेथी रहेङ्गी ? नही, वे गाव मे बने कपास की चुनाई, धुनाई, कताई और बुनाई तक करेङ्गी. ऐसा करेङ्गे, तभी वस्त्र के विषय मे गाव स्वावलम्बी  बन सकेगा. 
गाव मे गन्ना पैदा हो, तो उसका गुड भी वही बनना चाहिये. तिल का तेल भी बाहर से क्यो खरीदा जाये ? गाव मे तिल, सरसो आदि पैदा हो, तो उनका तेल वही पर पेर लेना चाहिये. दैनदिन आव्श्यकताओ के बारे मे जितना स्वावलम्बन  हो सके, उतना साध लेना गाव का प्रथम कर्तव्य है. 
ग्रामीण उद्योग गाव मे ही चले 
हम नही चाहते कि नगरो से चावल कुतवाकर, आटा पिसवाकर और गुड चीनी बनवाकर गाव मे लायी जाये. हम चाहते है कि ये सब चीजे गाव मे ही बने. गाव मे चश्मा, थार्मामीतर, लाऊद्स्पीकर्  जैसी चीजो की जरूरत पडे तो वे नगर से लायी जा सकती है. किन्तु आज होता यह है कि नगर वाले गाव वालो के उद्योग खुद करते है. गाव के कच्चे माल का पक्का माल गाव मे ही बन सकता है, लेकिन आज वह नगरो मे यन्त्रो द्वारा बनाया जाता है. उधर विदेश का माल नगरो मे आटा है, उसे वहा रोका नही जाता. हम चाहते है कि गाव के उद्योग गाव मे ही चले और विदेश से आने वाला माल नगरो मे बने. अगर गव के उद्योग खत्म हो जायेङ्गे तो न सिर्फ़ गाव पर, बल्कि नगरो पर भी संकत आयेगा. फ़िर गाव के बेकार लोगो का नगरो पर हमला होगा और उपर से विदेशी माल का हमला उनपर होता ही रहेगा. इस तरह दोनो हमलो के बीच इस तरह सहयोग होना चाहिये कि गाव वाले अपना उद्योग चलाये और नगर वाले विदेश से आने वाली चीजे अपने यहा बनाये. इस तरह प्रत्येक गाव पूर्ण होगा. 
जैसे इस देश मे और दुनिया मे भी खेती तल नही सकती, वैसे ही कम से कम हिन्दुस्तान मे ग्रामोध्योग टल नही सकते. बेकारी के असुर भय से नही, बल्कि स्थाई योजना के रूप मे यह काम होना चाहिये. ग्रामोध्योगो मे यह सामर्थ्य है कि गाव के औजारो से ही काम हो सकता है. उसके लिये ज्यादा पून्जी की जरूरत नही होती और न ज्यादा तालीम ही देनी होती है. 
ये ग्रामोध्योग भी अकेले नही टिक सकते. गाव के सब लोगो को मिलकर उसकी योजना करनी होगी. अगर गाव के लोग निश्चय करे कि गाव मे बाहर से कपडा नही आ सकता, तो कपास बोने से कपडा बनाने तक सारा काम गाव मे ही करेङ्गे. कोई व्यक्तिगत तौर पर ग्रामोध्योग कर ले, तो उससे ग्रामव्यापी योजना नही हो सकती. ग्राम योजना बनाने के लिये गाव की एक समिति बनानी चाहिये. 
गाव की सहकारी दूकान 
गाव मे एक ऐसी दूकान खुलनी चाहिये, जिसमे हर घर काम का या तो रूपयो मे या श्रम मे हिस्सा रहे. सारी खरीद-बिक्री उसी दूकान की मार्फ़त हो. ऐसा करने पर कोई बाहरी व्यापारी गाव वालो को ठग न सकेगा. सालभर के लिये जितना तेल चाहिये, वह सारा गाव मे ही बनाया जायेगा, तो गाव के लिये एक बहुत बडा उद्योग प्राप्त हो जायेगा. इसी तरह कपडा, गुड, जूते आदि के विषय मे भी गाव को पराधीन न रहना चाहिये. कच्चे माल का सारा पक्का माल गाव मे ही बनाने की सुव्यवस्थित योजना होनी चाहिये. 
इसी तर्ह सारे गाव वाले प्रेम से रहे तो, उन्हे नगर के वकीलो और अदाल्तो की जरूरत ही न रहेगी. यदि गाव वाले मिलकर इन्तजाम करे कि रात मे बेल एक-दूसरे के खेत मे न चले जाये तो फ़िर् न तो सबको जागने की जरूरत पडेगी और न गस्तवाला ही नियुक्त करना पडेगा. इस प्रकार हर ग्रामीण खुद पूर्ण होकर दूसरे ग्रामीण से सहयोग करे, तो इन सक्षम ग्रामीणो के परस्परावलंबन से गाव का स्वावलम्बन सहज ही सध जायेगा.

निर्वाः की चीजो मे स्वावलम्बी होगा. गाव को चाहिये कि यह अपने नित्य के उपयोग की अधिक से अधिक चीजे गाव मे बना ले. उन्मे अनाज तो प्रमुख चीज है ही. गाव चाहे तो आसानी से और समज़दारी से उस क्षेत्र मे सदैव आत्मनिर्भर रह सकता है.
वस्त्र स्वावलम्बन 
दूसरी चीज है वस्त्र स्वाव्लम्बन. कहा जाता है कि पहली आवश्यकता अन्न की है और दूसरी वस्त्र की. लेकिन मावन संस्कृति का विकास इस तरह हुआ है कि कपडो की आवश्यकता नंबर एक है और खाने के अन्न का नंबर दो, ऐसा कहने का मौका आता है. मै चार दिन भूखा रह सकता हू, लेकिन आपके सामने आध घनता नाङ्गा नही रह सक्ता और न बेठ सकता हू. इसलिये आपके ध्यान मे आयेगा कि कपडे की सान्स्कृतिक आवश्यकता है. ठण्ड से रक्षा करने के लिये, धूप से बचने के लिये कपडे की भौतिक आवश्यकता होती, तो उसका स्थान द्वितिय होता और अन्न का पहला. लेकिन स्थिति यहा तक है कि लाश को भी कपडे की आवश्यकता होती है. मरने के बाद भी खाने की आवश्यकता की कल्पना क्या आप कर सकते है ? इस तरह संकृति के खयाल से कपडा उचे दाम मे बेथता है. उसके बारे मे जो गाव पराधीन होगा, वह सपने मे भी सुखी नही हो सकता.
इसलिये गाववालो को संकल्प करना होगा कि चाहे दुनियाभर मे मिले चलती हो, उसका कपडा सस्ता पडता हो, वह आपको मुफ़्त भी मिले, बाहर का कपडा लेने वाले को दो आना इनाम भी मिले तो भी हम अपने गाव का, अपने हाथ का बना कपडा ही पहनेन्गे. हम वस्त्र के विषय मे स्वावलम्बी बनेङ्गे, तभी हमारे गाव का विकास होगा. 
नित्योपयोगी चीजे स्वयम तैयार करे 
इसके लिये हमे गाव मे ही कपास पैदा करनी होगी और उसका कपडा गाव मे ही बनाना होगा. उससे गाव को उद्योग मिलेङ्गे. भाई खेती पर काम करेङ्गे, तो क्या बहने घर पर खाली बेथी रहेङ्गी ? नही, वे गाव मे बने कपास की चुनाई, धुनाई, कताई और बुनाई तक करेङ्गी. ऐसा करेङ्गे, तभी वस्त्र के विषय मे गाव स्ववलम्बी बन सकेगा. 
गाव मे गणा पैदा हो, तो उसका गुड भी वही बनना चाहिये. तिल का तेल भी बाहर से क्यो खरीदा जाये ? गाव मे तिल, सरसो आदि पैदा हो, तो उनका तेल वही पर पेर लेना चाहिये. दैनदिन आव्श्यकताओ के बारे मे जितना स्वावम्बन् हो सके, उतना साध लेना गाव का प्रथम कर्तव्य है. 
ग्रामीण उद्योग गाव मे ही चले 
हम नही चाहते कि नगरो से चावल कुतवाकर, आटा पिसवाकर और गुड चीनी बनवाकर गाव मे लायी जाये. हम चाहते है कि ये सब चीजे गाव मे ही बने. गाव मे चश्मा, थार्मामीतर, लाऊद्स्पीकर्  जैसी चीजो की जरूरत पडे तो वे नगर से लायी जा सकती है. किन्तु आज होता यह है कि नगर वाले गाव वालो के उद्योग खुद करते है. गाव के कच्चे माल का पक्का माल गाव मे ही बन सकता है, लेकिन आज वह नगरो मे यन्त्रो द्वारा बनाया जाता है. उधर विदेश का माल नगरो मे आटा है, उसे वहा रोका नही जाता. हम चाहते है कि गाव के उद्योग गाव मे ही चले और विदेश से आने वाला माल नगरो मे बने. अगर गव के उद्योग खत्म हो जायेङ्गे तो न सिर्फ़ गाव पर, बल्कि नगरो पर भी संकत आयेगा. फ़िर गाव के बेकार लोगो का नगरो पर हमला होगा और उपर से विदेशी माल का हमला उनपर होता ही रहेगा. इस तरह दोनो हमलो के बीच इस तरह सहयोग होना चाहिये कि गाव वाले अपना उद्योग चलाये और नगर वाले विदेश से आने वाली चीजे अपने यहा बनाये. इस तरह प्रत्येक गाव पूर्ण होगा. 
जैसे इस देश मे और दुनिया मे भी खेती तल नही सकती, वैसे ही कम से कम हिन्दुस्तान मे ग्रामोध्योग टल नही सकते. बेकारी के असुर भय से नही, बल्कि स्थाई योजना के रूप मे यह काम होना चाहिये. ग्रामोध्योगो मे यह सामर्थ्य है कि गाव के औजारो से ही काम हो सकता है. उसके लिये ज्यादा पून्जी की जरूरत नही होती और न ज्यादा तालीम ही देनी होती है. 
ये ग्रामोध्योग भी अकेले नही टिक सकते. गाव के सब लोगो को मिलकर उसकी योजना करनी होगी. अगर गाव के लोग निश्चय करे कि गाव मे बाहर से कपडा नही आ सकता, तो कपास बोने से कपडा बनाने तक सारा काम गाव मे ही करेङ्गे. कोई व्यक्तिगत तौर पर ग्रामोध्योग कर ले, तो उससे ग्रामव्यापी योजना नही हो सकती. ग्राम योजना बनाने के लिये गाव की एक समिति बनानी चाहिये. 
गाव की सहकारी दूकान 
गाव मे एक ऐसी दूकान खुलनी चाहिये, जिसमे हर घर काम का या तो रूपयो मे या श्रम मे हिस्सा रहे. सारी खरीद-बिक्री उसी दूकान की मार्फ़त हो. ऐसा करने पर कोई बाहरी व्यापारी गाव वालो को ठग न सकेगा. सालभर के लिये जितना तेल चाहिये, वह सारा गाव मे ही बनाया जायेगा, तो गाव के लिये एक बहुत बडा उद्योग प्राप्त हो जायेगा. इसी तरह कपडा, गुड, जूते आदि के विषय मे भी गाव को पराधीन न रहना चाहिये. कच्चे माल का सारा पक्का माल गाव मे ही बनाने की सुव्यवस्थित योजना होनी चाहिये. 
इसी तरह सारे गाव वाले प्रेम से रहे तो, उन्हे नगर के वकीलो और अदाल्तो की जरूरत ही न रहेगी. यदि गाव वाले मिलकर इन्तजाम करे कि रात मे बेल एक-दूसरे के खेत मे न चले जाये तो फ़िर् न तो सबको जागने की जरूरत पडेगी और न गस्तवाला ही नियुक्त करना पडेगा. इस प्रकार हर ग्रामीण खुद पूर्ण होकर दूसरे ग्रामीण से सहयोग करे, तो इन सक्षम ग्रामीणो के परस्परावलंबन से गाव का स्वावलम्बन सहज ही सध जायेगा. 
ग्राम पञ्चायत 
विनोबा 

21 दिसंबर 2010

आदर्श गाँव के सूत्र
वैसे आदर्श गाँव का चित्र खींचना हो तो वहां के वातावरण और वहां बसनेवाले लोगों के आचरण आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक सभी दृष्टियों से उन्नत होने चाहिए. फिर भी उसका स्वच्छ, संयत, शांत और स्वस्थ होना आदर्श का पहला कदम है.
स्वछता और सफाई
मुख्य बात यह है कि गाँव में स्वछता या सफाई होनी चाहिए. अगर गाँव गंदे रहे तो यही मानना चाहिए कि गाँव वाले नरक में रहते हैं. हम गाँव-गाँव जाते हैं, तो कई गाँव में नाक बंद करके ही प्रवेश करना पड़ता है, क्योंकि लोग गाँव के बाहर खुले मैदान में ही पाखाना करते हैं. सारी बदबू हवा में फैलती है और बीमारी बढ़ती है. मनुष्य के मैले पर मक्खियाँ बैठती हैं. फिर वे ही मक्खियाँ खाने की चीजों पर बैठती हैं और वही हम खाते हैं. उससे बीमारी फैलती है. इसी का नाम नरक है. यह नरक हमारा ही पैदा किया हुआ है. ऐसे नरक में जो लोग जीते हैं, उनको मरने के बाद भगवान् स्वर्ग में कैसे भेजेगा ? कई लोग रोज स्नान करते हैं, भस्म लगते हैं, छुआछूत मानते हैं, दो-दो, चार-चार बार साबुन से हाथ-पाँव धोते हैं. लेकिन जिस पर मक्खियाँ बैठती हैं, वह खाना जरूर खा लेते हैं. इसलिए हर व्यक्ति के घर के पीछे बगीचा हो. शौच के लिए लोग वहीँ जाएँ और बाद में मैले पर मिट्टी दाल दें. गन्दगी न फैलेगी और खाद भी तैयार होगी, जिसका उपयोग बगीचे में होगा. चीन, जापान में मनुष्य के मैले की खाद का बहुत अच्छा उपयोग होता  है. उससे सालभर में प्रतिव्यक्ति छह रुपये फसल बदती है. इस तरह गाँव में खूब स्वछता होनी चाहिए.
विनोबा
ग्राम परिवार भावना
आज घरों में हमारी परिवार भावना होती है. वह नाकाफी है. यह विज्ञानं का जमाना है. इसमें कोई भी परिवार अलग नहीं रह सकता. गाँव-गाँव मिलकर रहेगा, तभी ताकत बढ़ेगी. जैसे हमने घर-घर परिवार बनाये, वैसे ही इससे आगे ग्राम परिवार बनायें. यह ग्राम परिवार भारत की आवश्यकता है. आज के युग की मांग है. इसके बिना हम जी नहीं सकते. पहले यह बात हम भलीभांति समझ लें, फिर कमर कसें और कंधे से कन्धा मिलकर काम करें. फिर तो उत्पादन हम कई तरह से बढ़ा सकते हैं और गाँव को भरा-पूरा बना सकते हैं.
परिवार में सस्ता महंगा का प्रश्न कहाँ
आज गाँव में यह परिवार भावना कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती. हमारे सभी गाँव वाले बाहरी कपडे खरीदते हैं. गाँव के बुनकरों द्वारा बुना कपडा नहीं पहनते. बेचारे बुनकर उसे लाकर बहार बेचने जाते हैं और वहां न बिका तो सरकार के सामने रोते हैं. किन्तु यदि किसान और बुनकर इकट्ठे होकर तय करें कि 'किसान जो सूत काटेंगे, उसे ही बुनकर बुनेंगे और जो बुनेंगे, वही कपड़ा किसान पहनेंगे' तो दोनों जियेंगे. आज भी गाँव में बुनकर और तेली हैं. लेकिन गाँव का बुनकर अपने ही तेली का तेल यह कहकर नहीं खरीदता कि वह महंगा पड़ता है. वह शहर की मिल का ही तेल खरीदता है. इसी तरह गाँव का तेली भी गाँव के बुनकर का कपडा महंगा कहकर नहीं खरीदता और शहरों की मिल का खरीदकर पहनता है. दोनों एक ही गाँव में रहते हैं, पर न तेली का धंधा चल रहा है और न बुनकर का, क्योंकि दोनों एक-दुसरे की मदद नहीं करते. मान लिजीये, बुनकर ने तेली का तेल खरीदा, वह थोडा महँगा पड़ा और बुनकर की जेब से तेली के घर दो पैसे ज्यादा गए. फिर तेली ने बुनकर से कपडा खरीदा, वह थोडा महंगा था और तेली की जेब से बुनकर के घर दो पैसे ज्यादा गए, तो क्या फर्क पड़ा ? इसके घर से उसके घर में गए और उसके घर से इसके घर में. मौके पर दोनों को मदद मिली तो क्या नुक्सान हुआ ? आखिर दोनों जेबें मेरी ही हैं.
आपका गाँव : आपका घर
एक ही गाँव में बुनकर, चमार, तेली सभी हैं. लेकिन तेली के लिए, बुनकर के कपडे के लिए और चमार के जूतों के लिए गाँव में ग्राहक नहीं, यह क्या बात है ? गाँव में इतने सारे लोग पड़े हैं, वे क्यों नहीं ग्राहक बनते ? कारण स्पष्ट है. ऐसा कोई सोचता ही नहीं है कि यह मेरा गाँव है. अगर एक गाँव में रहकर भी यह मेरा घर है, इतना ही सोचेंगे तो गाँव का काम न बनेगा. गाँव के किसी एक घर में चेचक हो तो सारे गाँव में उसकी छूत लग जाती है. क्या उसे रोक सकते हैं ? गाँव में एक घर को आग लगे तो. पड़ोसी के घर को भी वह लगती है. क्या उसे रोक सकते हैं ?
ग्राम परिवार भावना : युग की मांग
इसलिए कुल गाँव को एक परिवार समझें, तभी काम बनेगा. अगर हम चाहते हैं कि यह जगह साफ़ रहे और यहाँ के दो घरवाले उसे साफ़ रखें, पर दूसरे दो घरवाले अपने लड़कों को पैखाने के लिए बैठते हैं, तो क्या वह जगह साफ़ रहेगी ? यह जगह तो तभी साफ़ रहेगी जब चारों गहर्वाले मिलकर निश्चय करें कि हम उसे साफ़ रखेंगे. इसलिए गाँव का काम, गाँव की उन्नति और साथ-साथ घर की भी उन्नति तब होगी, जब गाँव वाले सारे गाँव को अपना एक परिवार मानेंगे.
यह माध्यम मार्ग
आज के वैज्ञानिक ज़माने में मनुष्य का जीवन जिस तरह का बन रहा है, उस बारे में सोचते हुए हम गाँव का परिवार नहीं बनायेंगे तो हमें अपनी बहुत-सी समस्याएँ हल करना कठिन हो जाएगा. ग्राम परिवार बनाने की कल्पना का अनुराग इतना विस्तृत भी नहीं है कि वह अव्यक्त हो जाए. यह एक अत्यंत व्यावहारिक कार्यक्रम है. ग्राम परिवार की कल्पना में जैसे नैतिक उत्थान है, वैसे ही व्यवहार की भी बड़ी सहूलियत है. बुद्ध भगवान् के शब्दों में ग्राम परिवार की कल्पना को भी 'माध्यम मार्ग' कहा जाएगा.
इस तरह स्पष्ट है कि गाँव वालों को यदि सच्चे अर्थ में गाँव की उन्नति की चाह है और वे गाँव को सर्वांगीण बनाकर उसे राष्ट्र की सुदृढ़ नीवं बनाना चाहते हैं तो व्यापक रूप में ग्राम परिवार की भावना का कार्यान्वयन करना चाहिए. आज के युग की यही मांग है.
आदर्श गाँव के सूत्र
वैसे आदर्श गाँव का चित्र खींचना हो तो वहां का वातावरण और वहां बसने वाले लोगों के आचरण आर्थिक, सामजिक, धार्मिक सभी दृष्टियों से उन्नत होने चय्हिये. फिर भी उसका स्वच्चा, संयत शांत और स्वस्थ होना उसका आदर्श की ओर पहला कदम है.
पुष्पेन्द्र दुबे