गाव का अर्थशास्त्र
अनाज ऐसी चीज है, जिसके बिना किसी का कोई काम नही चल सकता. वह सबको मिलना चाहिये. वह महान्गा भी बिक नही सकता. सच तो यह है कि जैसे हवा, पानी सबको मुफ़्त मिलते है, वैसे ही अनाज भी बिना दं मिलना चाहिये. और यदि मुफ़्त मिल ही न सके तो उसका दं इतना काम होना चाहिये कि मुफ़्त जैसा मालूम हो.
अनाज की कीमत : खतरनाक कल्पना
वास्तव मे अनाज की कीमत की कल्पना ही बडी खतरनाक है. उसे सर्वथा छोड देना चाहिये. इसी घातक कल्पना के शिकार होकर आज के कितने ही किसान अपने खेत मे तम्बाकू, गणना, जूत, कपास, हल्दी जैसी ज्यादा दाम देने वाली चीजे बोते है. अनाज की कीमत बडाने की मान्ग के बावजूद वे जानते है कि वह बहुत ज्यादा बढ नही सकती. क्योकि जो चीज सबको चाहिये, बेहद महान्गी नही हो सकती. किन्तु यह भी ज्यादा दिन चल नही सकता. क्योकि दिन पर दिन जनसंख्या बढ रही है और उसके लिये खाद्य की पूर्ती करना हमारे लिये अनिवार्य है. तम्बाकू तो खाद्य वस्तु नही, वह बुरा व्यसन है. गन्ना, हल्दी जैसी खाद्य चीजे और जूट, कपास जैसी नियोप्योगी चीजे भी अनाज का स्थान नही ले सकती. तब अधिक-से-अधिक जमीन का उपयोग अनाज के लिये करना ही होगा. शायद दूसरी चीजे बोना बन्द कर दे या कम-से-कम बोनी पडे.
कितने ही गाव वाले गाव का ख्याल न कर पैसे के लोभ मे दो-चार महीने का अनाज अपने पास रखकर शेष अपनी पूरी खडी फ़सल् नगर वालो के हाथ मे बेच देते है और जिस किसी तरह अपना गुजारा चलाते है. यह भी गलत चीज है. मान लीजिये, अगले साल बारिश न होने से फ़सल न हुई तो उन्हे वही अनाज ज्यादा दाम देकर खरीदना होगा. यदि ज्यादा पैसा पास न रहा तो आधा पेट ही खाना होगा. फ़िर आधा पेट खाकर काम करने से फ़सल भी कम आयेगी. इस तरह यह सारा केवल मोहजाल है. फ़िर यह भी सोचना होगा कि हिन्दुस्तान मे सौ मे से अस्सी मनुष्य (अब सत्तर) गाव मे रहते है. मान लीजिये, सौ को सौ सेर अनाज चाहिये, तो नब्बे सेर अनाज गाव मे ही रखना होगा और दस सेर बाहर नगरो मे भेजना होगा. अनुभव यही है कि नगर के दो मनुष्यो के बराबर गाव का एक मनुष्य पडता है. गाव का लडका जितना खायेगा, उतना नगर का जवान नही खा सकेगा. क्योकि उसको खाना पचता ही नही. जो काम ही नहीए करते, पसीना नही बहाते, उन्हे खाना क्या पचेगा ? अत: गाव मे पैदा हुआ अनाज ९० प्रतिशत गाव मे ही रख कर १० प्रतिशत ही बाहर भेजना चाहिये. गाव के पास दो साल का अनाज होना चाहिये.
जीवन पैसे के आधार पर न रखे
सच तो यह है कि किसान को पैसे के आधार पर अपना जीवन ही नही रखना चाहिये. जहा वह अनिवार्य हो जाय, वहा उस पैसे की पूर्ति के लिये दूसरे उद्योग चलाने चाहिये. उन उद्योगो से बना माल नगरो मे जाना चाहिये और वह महान्गा भी होना चाहिये. इस तरह वे पैसे की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति कर सकते है. वैसे गाव के सारे व्यवहार विनिमय श्रम पर ही करने चाहिये. मान लीजिये, गाव को एक शिक्षक चाहिये. वह पूछेगा : "तनख्वाह क्या दोगे ? तो आपको यही कहना चाहिये कि 'हमारे गाव मे पैसा नही होता. हम तो साल भर की अपनी-अपनी फ़सलो मे से थोडा-थोडा हिस्सा दे देङ्गे और एक एकड जमीन देङ्गे, जिस पर मेहनत करके आप फ़ल, तरकारी और कपास पैदा करे. उसमे एक कुआ खुदवा देङ्गे. अपना कपडा आप स्वयम तैयार कर ले.
जमीन को पैसे का साधन बनाना अभिशाप
पैसे के आधार पर जीवन रखने के अभिशापस्वरूप ही आज गाव मे जमीन पैसे का साधन मानी जाने लगी है. किन्तु वह पैसे की चीज नही, प्राण की चीज है. वह हमारी माता है. वह सबके पोषण का ही साधन हो सकती है. जमीन को पैसे का साधन बनाने का ही अभिशाप है कि आज उसे पैसेवालो ने छीन लिया है.होता यह है कि घर मे शादी है,तो दो सौ लिखवाकर सौ रुपये कर्ज लेना पडता है. दिन पर दिन ब्याज से वे रुपये बढते जाते है और आखिर दो सौ के बदले पाच एकड जमीन देनी होती है. इस तरह जमीन की पैसे मे कीमत हो जाने से बेचारा किसान बेहाल हो उठता है. उसके लिये तमिल का 'कल्याणं' सर्वनाश मे बदल जाता है.
वास्तव मे जमीन का मूल्य रुपयो मे कभी नही हो सकता. यदि दस हजार रुपये के नोटो को खेत मे दबायेङ्गे, ऊपर से पानी सीचेङ्गे, तो क्या फ़सल हो जायेगी ? मिट्टी की कीमत पैसे मे नही हो सकती. मिट्टी से तो खाने की चीजे मिलती है, पैसा नही. पैसा तो नासिक के छापाखाना मे बनता है. एक रुपये का नोट छापने मे जितना श्रम लगता है, उतना ही श्रम हजार का छापने मे भी लगता है. सिर्फ़ दो-तीन शून्य जोड दिये तो सौ हजार बन जाता है. किन्तु एक रुपये के अनाज का सौ रुपये का अनाज बना हो तो सौ गुणा श्रम करना होता है.
यह सब देखते हुए गाव वालो को सुखी होने के लिये निम्नलिखित तीन-चार चीजे करनी होङ्गी : १ जमीन को कभी पैसे का आधार न बनाये, २ पैसे की ज्यादा जरूरत न रखे, ३ थोडा पैसा चाहिये तो उसके लिये गाव मे उद्योग चलाये और उनसे बनी चीजे बाहार ज्यादा दाम पर बेचे, ४ गाव मे सबको जमीन मिले, संक्षेप मे ग्रामीण अर्थशास्त्र की यही रूपरेखा है.
विनोबा
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