ग्राम स्वावलम्बन
कोइ भी गाव तभी आदर्श मना जा सकेगा, जो अपने दैनिक निर्वाह की चीजो मे स्वावलम्बी होगा. गाव को चाहिये कि यह अपने नित्य के उपयोग की अधिक से अधिक चीजे गाव मे बना ले. उन मे अनाज तो प्रमुख चीज है ही. गाव चाहे तो आसानी से और समज़दारी से उस क्षेत्र मे सदैव आत्मनिर्भर रह सकता है.
वस्त्र स्वावलम्बन
दूसरी चीज है वस्त्र स्वावलम्बन . कहा जाता है कि पहली आवश्यकता अन्न की है और दूसरी वस्त्र की. लेकिन मानव संस्कृति का विकास इस तरह हुआ है कि कपडो की आवश्यकता नंबर एक है और खाने के अन्न का नंबर दो, ऐसा कहने का मौका आता है. मै चार दिन भूखा रह सकता हू, लेकिन आपके सामने आधा घण्टा नाङ्गा नही रह सक्ता और न बेठ सकता हू. इसलिये आपके ध्यान मे आयेगा कि कपडे की सान्स्कृतिक आवश्यकता है. ठण्ड से रक्षा करने के लिये, धूप से बचने के लिये कपडे की भौतिक आवश्यकता होती, तो उसका स्थान द्वितिय होता और अन्न का पहला. लेकिन स्थिति यहा तक है कि लाश को भी कपडे की आवश्यकता होती है. मरने के बाद भी खाने की आवश्यकता की कल्पना क्या आप कर सकते है ? इस तरह संकृति के खयाल से कपडा उचे दाम मे बेथता है. उसके बारे मे जो गाव पराधीन होगा, वह सपने मे भी सुखी नही हो सकता.
इसलिये गाववालो को संकल्प करना होगा कि चाहे दुनियाभर मे मिले चलती हो, उसका कपडा सस्ता पडता हो, वह आपको मुफ़्त भी मिले, बाहर का कपडा लेने वाले को दो आना इनाम भी मिले तो भी हम अपने गाव का, अपने हाथ का बना कपडा ही पहनेन्गे. हम वस्त्र के विषय मे स्वावलम्बी बनेङ्गे, तभी हमारे गाव का विकास होगा.
नित्योपयोगी चीजे स्वयम तैयार करे
इसके लिये हमे गाव मे ही कपास पैदा करनी होगी और उसका कपडा गाव मे ही बनाना होगा. उससे गाव को उद्योग मिलेङ्गे. भाई खेती पर काम करेङ्गे, तो क्या बहने घर पर खाली बेथी रहेङ्गी ? नही, वे गाव मे बने कपास की चुनाई, धुनाई, कताई और बुनाई तक करेङ्गी. ऐसा करेङ्गे, तभी वस्त्र के विषय मे गाव स्वावलम्बी बन सकेगा.
गाव मे गन्ना पैदा हो, तो उसका गुड भी वही बनना चाहिये. तिल का तेल भी बाहर से क्यो खरीदा जाये ? गाव मे तिल, सरसो आदि पैदा हो, तो उनका तेल वही पर पेर लेना चाहिये. दैनदिन आव्श्यकताओ के बारे मे जितना स्वावलम्बन हो सके, उतना साध लेना गाव का प्रथम कर्तव्य है.
ग्रामीण उद्योग गाव मे ही चले
हम नही चाहते कि नगरो से चावल कुतवाकर, आटा पिसवाकर और गुड चीनी बनवाकर गाव मे लायी जाये. हम चाहते है कि ये सब चीजे गाव मे ही बने. गाव मे चश्मा, थार्मामीतर, लाऊद्स्पीकर् जैसी चीजो की जरूरत पडे तो वे नगर से लायी जा सकती है. किन्तु आज होता यह है कि नगर वाले गाव वालो के उद्योग खुद करते है. गाव के कच्चे माल का पक्का माल गाव मे ही बन सकता है, लेकिन आज वह नगरो मे यन्त्रो द्वारा बनाया जाता है. उधर विदेश का माल नगरो मे आटा है, उसे वहा रोका नही जाता. हम चाहते है कि गाव के उद्योग गाव मे ही चले और विदेश से आने वाला माल नगरो मे बने. अगर गव के उद्योग खत्म हो जायेङ्गे तो न सिर्फ़ गाव पर, बल्कि नगरो पर भी संकत आयेगा. फ़िर गाव के बेकार लोगो का नगरो पर हमला होगा और उपर से विदेशी माल का हमला उनपर होता ही रहेगा. इस तरह दोनो हमलो के बीच इस तरह सहयोग होना चाहिये कि गाव वाले अपना उद्योग चलाये और नगर वाले विदेश से आने वाली चीजे अपने यहा बनाये. इस तरह प्रत्येक गाव पूर्ण होगा.
जैसे इस देश मे और दुनिया मे भी खेती तल नही सकती, वैसे ही कम से कम हिन्दुस्तान मे ग्रामोध्योग टल नही सकते. बेकारी के असुर भय से नही, बल्कि स्थाई योजना के रूप मे यह काम होना चाहिये. ग्रामोध्योगो मे यह सामर्थ्य है कि गाव के औजारो से ही काम हो सकता है. उसके लिये ज्यादा पून्जी की जरूरत नही होती और न ज्यादा तालीम ही देनी होती है.
ये ग्रामोध्योग भी अकेले नही टिक सकते. गाव के सब लोगो को मिलकर उसकी योजना करनी होगी. अगर गाव के लोग निश्चय करे कि गाव मे बाहर से कपडा नही आ सकता, तो कपास बोने से कपडा बनाने तक सारा काम गाव मे ही करेङ्गे. कोई व्यक्तिगत तौर पर ग्रामोध्योग कर ले, तो उससे ग्रामव्यापी योजना नही हो सकती. ग्राम योजना बनाने के लिये गाव की एक समिति बनानी चाहिये.
गाव की सहकारी दूकान
गाव मे एक ऐसी दूकान खुलनी चाहिये, जिसमे हर घर काम का या तो रूपयो मे या श्रम मे हिस्सा रहे. सारी खरीद-बिक्री उसी दूकान की मार्फ़त हो. ऐसा करने पर कोई बाहरी व्यापारी गाव वालो को ठग न सकेगा. सालभर के लिये जितना तेल चाहिये, वह सारा गाव मे ही बनाया जायेगा, तो गाव के लिये एक बहुत बडा उद्योग प्राप्त हो जायेगा. इसी तरह कपडा, गुड, जूते आदि के विषय मे भी गाव को पराधीन न रहना चाहिये. कच्चे माल का सारा पक्का माल गाव मे ही बनाने की सुव्यवस्थित योजना होनी चाहिये.
इसी तर्ह सारे गाव वाले प्रेम से रहे तो, उन्हे नगर के वकीलो और अदाल्तो की जरूरत ही न रहेगी. यदि गाव वाले मिलकर इन्तजाम करे कि रात मे बेल एक-दूसरे के खेत मे न चले जाये तो फ़िर् न तो सबको जागने की जरूरत पडेगी और न गस्तवाला ही नियुक्त करना पडेगा. इस प्रकार हर ग्रामीण खुद पूर्ण होकर दूसरे ग्रामीण से सहयोग करे, तो इन सक्षम ग्रामीणो के परस्परावलंबन से गाव का स्वावलम्बन सहज ही सध जायेगा.
निर्वाः की चीजो मे स्वावलम्बी होगा. गाव को चाहिये कि यह अपने नित्य के उपयोग की अधिक से अधिक चीजे गाव मे बना ले. उन्मे अनाज तो प्रमुख चीज है ही. गाव चाहे तो आसानी से और समज़दारी से उस क्षेत्र मे सदैव आत्मनिर्भर रह सकता है.
वस्त्र स्वावलम्बन
दूसरी चीज है वस्त्र स्वाव्लम्बन. कहा जाता है कि पहली आवश्यकता अन्न की है और दूसरी वस्त्र की. लेकिन मावन संस्कृति का विकास इस तरह हुआ है कि कपडो की आवश्यकता नंबर एक है और खाने के अन्न का नंबर दो, ऐसा कहने का मौका आता है. मै चार दिन भूखा रह सकता हू, लेकिन आपके सामने आध घनता नाङ्गा नही रह सक्ता और न बेठ सकता हू. इसलिये आपके ध्यान मे आयेगा कि कपडे की सान्स्कृतिक आवश्यकता है. ठण्ड से रक्षा करने के लिये, धूप से बचने के लिये कपडे की भौतिक आवश्यकता होती, तो उसका स्थान द्वितिय होता और अन्न का पहला. लेकिन स्थिति यहा तक है कि लाश को भी कपडे की आवश्यकता होती है. मरने के बाद भी खाने की आवश्यकता की कल्पना क्या आप कर सकते है ? इस तरह संकृति के खयाल से कपडा उचे दाम मे बेथता है. उसके बारे मे जो गाव पराधीन होगा, वह सपने मे भी सुखी नही हो सकता.
इसलिये गाववालो को संकल्प करना होगा कि चाहे दुनियाभर मे मिले चलती हो, उसका कपडा सस्ता पडता हो, वह आपको मुफ़्त भी मिले, बाहर का कपडा लेने वाले को दो आना इनाम भी मिले तो भी हम अपने गाव का, अपने हाथ का बना कपडा ही पहनेन्गे. हम वस्त्र के विषय मे स्वावलम्बी बनेङ्गे, तभी हमारे गाव का विकास होगा.
नित्योपयोगी चीजे स्वयम तैयार करे
इसके लिये हमे गाव मे ही कपास पैदा करनी होगी और उसका कपडा गाव मे ही बनाना होगा. उससे गाव को उद्योग मिलेङ्गे. भाई खेती पर काम करेङ्गे, तो क्या बहने घर पर खाली बेथी रहेङ्गी ? नही, वे गाव मे बने कपास की चुनाई, धुनाई, कताई और बुनाई तक करेङ्गी. ऐसा करेङ्गे, तभी वस्त्र के विषय मे गाव स्ववलम्बी बन सकेगा.
गाव मे गणा पैदा हो, तो उसका गुड भी वही बनना चाहिये. तिल का तेल भी बाहर से क्यो खरीदा जाये ? गाव मे तिल, सरसो आदि पैदा हो, तो उनका तेल वही पर पेर लेना चाहिये. दैनदिन आव्श्यकताओ के बारे मे जितना स्वावम्बन् हो सके, उतना साध लेना गाव का प्रथम कर्तव्य है.
ग्रामीण उद्योग गाव मे ही चले
हम नही चाहते कि नगरो से चावल कुतवाकर, आटा पिसवाकर और गुड चीनी बनवाकर गाव मे लायी जाये. हम चाहते है कि ये सब चीजे गाव मे ही बने. गाव मे चश्मा, थार्मामीतर, लाऊद्स्पीकर् जैसी चीजो की जरूरत पडे तो वे नगर से लायी जा सकती है. किन्तु आज होता यह है कि नगर वाले गाव वालो के उद्योग खुद करते है. गाव के कच्चे माल का पक्का माल गाव मे ही बन सकता है, लेकिन आज वह नगरो मे यन्त्रो द्वारा बनाया जाता है. उधर विदेश का माल नगरो मे आटा है, उसे वहा रोका नही जाता. हम चाहते है कि गाव के उद्योग गाव मे ही चले और विदेश से आने वाला माल नगरो मे बने. अगर गव के उद्योग खत्म हो जायेङ्गे तो न सिर्फ़ गाव पर, बल्कि नगरो पर भी संकत आयेगा. फ़िर गाव के बेकार लोगो का नगरो पर हमला होगा और उपर से विदेशी माल का हमला उनपर होता ही रहेगा. इस तरह दोनो हमलो के बीच इस तरह सहयोग होना चाहिये कि गाव वाले अपना उद्योग चलाये और नगर वाले विदेश से आने वाली चीजे अपने यहा बनाये. इस तरह प्रत्येक गाव पूर्ण होगा.
जैसे इस देश मे और दुनिया मे भी खेती तल नही सकती, वैसे ही कम से कम हिन्दुस्तान मे ग्रामोध्योग टल नही सकते. बेकारी के असुर भय से नही, बल्कि स्थाई योजना के रूप मे यह काम होना चाहिये. ग्रामोध्योगो मे यह सामर्थ्य है कि गाव के औजारो से ही काम हो सकता है. उसके लिये ज्यादा पून्जी की जरूरत नही होती और न ज्यादा तालीम ही देनी होती है.
ये ग्रामोध्योग भी अकेले नही टिक सकते. गाव के सब लोगो को मिलकर उसकी योजना करनी होगी. अगर गाव के लोग निश्चय करे कि गाव मे बाहर से कपडा नही आ सकता, तो कपास बोने से कपडा बनाने तक सारा काम गाव मे ही करेङ्गे. कोई व्यक्तिगत तौर पर ग्रामोध्योग कर ले, तो उससे ग्रामव्यापी योजना नही हो सकती. ग्राम योजना बनाने के लिये गाव की एक समिति बनानी चाहिये.
गाव की सहकारी दूकान
गाव मे एक ऐसी दूकान खुलनी चाहिये, जिसमे हर घर काम का या तो रूपयो मे या श्रम मे हिस्सा रहे. सारी खरीद-बिक्री उसी दूकान की मार्फ़त हो. ऐसा करने पर कोई बाहरी व्यापारी गाव वालो को ठग न सकेगा. सालभर के लिये जितना तेल चाहिये, वह सारा गाव मे ही बनाया जायेगा, तो गाव के लिये एक बहुत बडा उद्योग प्राप्त हो जायेगा. इसी तरह कपडा, गुड, जूते आदि के विषय मे भी गाव को पराधीन न रहना चाहिये. कच्चे माल का सारा पक्का माल गाव मे ही बनाने की सुव्यवस्थित योजना होनी चाहिये.
इसी तरह सारे गाव वाले प्रेम से रहे तो, उन्हे नगर के वकीलो और अदाल्तो की जरूरत ही न रहेगी. यदि गाव वाले मिलकर इन्तजाम करे कि रात मे बेल एक-दूसरे के खेत मे न चले जाये तो फ़िर् न तो सबको जागने की जरूरत पडेगी और न गस्तवाला ही नियुक्त करना पडेगा. इस प्रकार हर ग्रामीण खुद पूर्ण होकर दूसरे ग्रामीण से सहयोग करे, तो इन सक्षम ग्रामीणो के परस्परावलंबन से गाव का स्वावलम्बन सहज ही सध जायेगा.
ग्राम पञ्चायत
विनोबा
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