ग्राम परिवार भावना
आज घरों में हमारी परिवार भावना होती है. वह नाकाफी है. यह विज्ञानं का जमाना है. इसमें कोई भी परिवार अलग नहीं रह सकता. गाँव-गाँव मिलकर रहेगा, तभी ताकत बढ़ेगी. जैसे हमने घर-घर परिवार बनाये, वैसे ही इससे आगे ग्राम परिवार बनायें. यह ग्राम परिवार भारत की आवश्यकता है. आज के युग की मांग है. इसके बिना हम जी नहीं सकते. पहले यह बात हम भलीभांति समझ लें, फिर कमर कसें और कंधे से कन्धा मिलकर काम करें. फिर तो उत्पादन हम कई तरह से बढ़ा सकते हैं और गाँव को भरा-पूरा बना सकते हैं.
परिवार में सस्ता महंगा का प्रश्न कहाँ
आज गाँव में यह परिवार भावना कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती. हमारे सभी गाँव वाले बाहरी कपडे खरीदते हैं. गाँव के बुनकरों द्वारा बुना कपडा नहीं पहनते. बेचारे बुनकर उसे लाकर बहार बेचने जाते हैं और वहां न बिका तो सरकार के सामने रोते हैं. किन्तु यदि किसान और बुनकर इकट्ठे होकर तय करें कि 'किसान जो सूत काटेंगे, उसे ही बुनकर बुनेंगे और जो बुनेंगे, वही कपड़ा किसान पहनेंगे' तो दोनों जियेंगे. आज भी गाँव में बुनकर और तेली हैं. लेकिन गाँव का बुनकर अपने ही तेली का तेल यह कहकर नहीं खरीदता कि वह महंगा पड़ता है. वह शहर की मिल का ही तेल खरीदता है. इसी तरह गाँव का तेली भी गाँव के बुनकर का कपडा महंगा कहकर नहीं खरीदता और शहरों की मिल का खरीदकर पहनता है. दोनों एक ही गाँव में रहते हैं, पर न तेली का धंधा चल रहा है और न बुनकर का, क्योंकि दोनों एक-दुसरे की मदद नहीं करते. मान लिजीये, बुनकर ने तेली का तेल खरीदा, वह थोडा महँगा पड़ा और बुनकर की जेब से तेली के घर दो पैसे ज्यादा गए. फिर तेली ने बुनकर से कपडा खरीदा, वह थोडा महंगा था और तेली की जेब से बुनकर के घर दो पैसे ज्यादा गए, तो क्या फर्क पड़ा ? इसके घर से उसके घर में गए और उसके घर से इसके घर में. मौके पर दोनों को मदद मिली तो क्या नुक्सान हुआ ? आखिर दोनों जेबें मेरी ही हैं.
आपका गाँव : आपका घर
एक ही गाँव में बुनकर, चमार, तेली सभी हैं. लेकिन तेली के लिए, बुनकर के कपडे के लिए और चमार के जूतों के लिए गाँव में ग्राहक नहीं, यह क्या बात है ? गाँव में इतने सारे लोग पड़े हैं, वे क्यों नहीं ग्राहक बनते ? कारण स्पष्ट है. ऐसा कोई सोचता ही नहीं है कि यह मेरा गाँव है. अगर एक गाँव में रहकर भी यह मेरा घर है, इतना ही सोचेंगे तो गाँव का काम न बनेगा. गाँव के किसी एक घर में चेचक हो तो सारे गाँव में उसकी छूत लग जाती है. क्या उसे रोक सकते हैं ? गाँव में एक घर को आग लगे तो. पड़ोसी के घर को भी वह लगती है. क्या उसे रोक सकते हैं ?
ग्राम परिवार भावना : युग की मांग
इसलिए कुल गाँव को एक परिवार समझें, तभी काम बनेगा. अगर हम चाहते हैं कि यह जगह साफ़ रहे और यहाँ के दो घरवाले उसे साफ़ रखें, पर दूसरे दो घरवाले अपने लड़कों को पैखाने के लिए बैठते हैं, तो क्या वह जगह साफ़ रहेगी ? यह जगह तो तभी साफ़ रहेगी जब चारों गहर्वाले मिलकर निश्चय करें कि हम उसे साफ़ रखेंगे. इसलिए गाँव का काम, गाँव की उन्नति और साथ-साथ घर की भी उन्नति तब होगी, जब गाँव वाले सारे गाँव को अपना एक परिवार मानेंगे.
यह माध्यम मार्ग
आज के वैज्ञानिक ज़माने में मनुष्य का जीवन जिस तरह का बन रहा है, उस बारे में सोचते हुए हम गाँव का परिवार नहीं बनायेंगे तो हमें अपनी बहुत-सी समस्याएँ हल करना कठिन हो जाएगा. ग्राम परिवार बनाने की कल्पना का अनुराग इतना विस्तृत भी नहीं है कि वह अव्यक्त हो जाए. यह एक अत्यंत व्यावहारिक कार्यक्रम है. ग्राम परिवार की कल्पना में जैसे नैतिक उत्थान है, वैसे ही व्यवहार की भी बड़ी सहूलियत है. बुद्ध भगवान् के शब्दों में ग्राम परिवार की कल्पना को भी 'माध्यम मार्ग' कहा जाएगा.
इस तरह स्पष्ट है कि गाँव वालों को यदि सच्चे अर्थ में गाँव की उन्नति की चाह है और वे गाँव को सर्वांगीण बनाकर उसे राष्ट्र की सुदृढ़ नीवं बनाना चाहते हैं तो व्यापक रूप में ग्राम परिवार की भावना का कार्यान्वयन करना चाहिए. आज के युग की यही मांग है.
आदर्श गाँव के सूत्र
वैसे आदर्श गाँव का चित्र खींचना हो तो वहां का वातावरण और वहां बसने वाले लोगों के आचरण आर्थिक, सामजिक, धार्मिक सभी दृष्टियों से उन्नत होने चय्हिये. फिर भी उसका स्वच्चा, संयत शांत और स्वस्थ होना उसका आदर्श की ओर पहला कदम है.
पुष्पेन्द्र दुबे
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