15 दिसंबर 2010

पंचायतें और ग्राम सभा
हिंदी में 'पंचायत' का अर्थ पांच बोले परमेश्वर माना जाता है. उनके काम में कुछ गलती हो जाए, तो स्थितप्रज्ञ से जाकर पुछा जाए, ऐसी हमारे पूर्वजों की कलपना थी. यद्यपि वह अभी तक कल्पना ही बनी रही, फिर भी विज्ञानं युग के कारण अब निश्चय ही सक्रिय रूप ग्रहण कर सकती है. दुनिया को भारत की यह पंचायत पद्धति विज्ञानं के कारण अपनानी ही पड़ेगी. अवश्य ही बीच के ज़माने में पंचायतें उच्च वर्ग के हाथ में रहीं. लेकिन गांधीजी ने आखिर-आखिः में पंचायत का जो विचार पेश किया, वह उच्चवर्गीय पंचायत का नहीं, बल्कि सार्वजनिक पंचायत का था. इस माने में पंचायत शब्द का मराठी, गुजराती आदि भाषाओँ में प्रसिद्ध झगडा-झमेले का अर्थ कदापि नहीं है.
एक ही वाद : 'ग्रामवाद'
ये ग्राम पंचायतें एक मत से चुनी जानी चाहिए. वे दलीय निर्वाचन के आधार पर कभी न चुनी जाएँ.वहां एक ही वाद चले और वह हो ग्रामवाद. अन्य किसी भी वाद से हमारा कभी कल्याण न होगा. गाँव में हम सभी दलों को अपने प्लातेफ़ोर्म पर लायें. गाँव के बाहर के झगडे गाँव में कभी न लायें जाएँ. अगर आज की चुनाव पद्धति से गाँव में दल बनते हैं, तो निश्चय ही गाँव का सर्वनाश हो जाएगा. गाँव में कोई राजनीतिक दल न रहे. केवल ग्राम सभा रहे और वही गाँव का सारा कारोबार चलाये. अगर ऐसा किया जाय, तो ग्राम सभा बहुत अधिक काम कर सकती है.
पंचायत ग्राम-सेवक-सभा बने
ग्राम-पंचायत को चाहिए कि वे 'ग्राम-सेवक-सभा' का रूप धारण करें. वे कभी शासक न बनें. वहां दंड होते हुए भी न रहे यानी नाममात्र का रहे. अगर कोई अड़ जाए, तो उसे थोड़ी देर अड़ा ही रहने दें, लेकिन अगर दंड-प्रयोग करने लगेंगे तो गाँव से जिस दर्शन की अपेक्षा की जाती है, वह कभी न मिल सकेगा.
गाँव का न्याय सर्वसम्मति से किया जाए. ग्राम-पंचायतें चुने जाने के बाद समझें कि हम परमात्मा के सामने बैठे हुए हैं. ग्राम-पंचायत की सभा में इश्वर को साक्षी बनाना चाहिए. ग्राम-सभा में बैठे लोगों में करूणा भरी होनी चाहिए. अगर उनमें करूणा न हो, तो बुद्धिमान होने पर भी वे ठीक से सेवा न कर पायेंगे. अत: ग्राम-सभा के सदस्यों का ह्रदय करूणा से ओत-प्रोत होना चाहिए.
योजनायें स्थानीय बनें
अगर कहीं एक जगह सत्ता हो और वही सब गावों की योजना करे, तो गावों की समस्याएं कभी हल नहीं हो सकती. सारा आयोजन ग्रामीणों की बुद्धि से ही होना चाहिए. ऐसा न होता, तो सबकी बुद्धि परती रखी गयी, यही कहा जाएगा. इसलिए स्थान-स्थान की विशेष परिस्थिति देख उस-उस जगह के लोग अपने-अपने हित की योजना बनायें. इसी का नाम 'विकेन्द्रित योजना' है. ग्राम-सभा का यह सर्वप्रथम आधार है.
सर्वसम्मति आवश्यक
फिर यह भी विकेन्द्रित योजना या विकेन्द्रित शासन सर्वसम्मति से चलना चाहिए. सिर्फ बहुमत के शासन से आपसी झगडे, द्वेष, मत्सर कभी काम नहीं होंगे. सारा काम सबकी सहमती से चले. जहाँ पूरी सर्वसम्मति न बन पाए और किसी एक का मत विरुद्ध पड़े, तो वह अपना मत स्पष्ट कर दे और फिर दूसरों के मत के अनुकूल बन जाए. मान लीजिये, किसी ग्रामसभा में किसी समय सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो, तो भी धैर्य रखें. वहां वाले देखेंगे कि आसपास के गाँव वाले यही ढंग अपनाकर आगे बढ़ रहे हैं, तो कुछ ही दिनों में उनपर उसका परिणाम हुए बगैर नहीं रहेगा.
प्रेम का शासन
तीसरी बात प्रेसम के शासन की है. गाँव में सदैव प्रेम का ही शासन चलना चाहिए, दंड का शासन कभी नहीं. सर्वसम्मति भी प्रेम से ही साधनी चाहिए. प्रेम का आग्रह रखने के कारण भले ही समाज की प्रगति धीरे-धीरे हो, आखिर वह होकर रहेगी. मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि गाँव से दंड को निकाल बाहर करने पर यदि गाँव की प्रगति रुक जाये, तो भी हर्ज नहीं. तुरही के बल पर यदि बैल से काम लेंगे, तो वह कितने दिन चलेगा ? एक आदमी अपने घोड़े को चारा भी देता था और चाबुक भी मारता था. आगे चलकर उसने चारा देना छोड़ दिया और सिर्फ काह्बुक मारने लगा. फल यह हुआ कि घोडा थकने लगा और कुछ दिन बाद चाबुक से भी नहीं चलने लगा. मतलब यह कि काम चाबुक से नहीं, चारे से होता है, यह पहचानना चाहिए. माँ बच्चे को दूध पिलाती है, इसलिए कभी-कभी थप्पड़ भी जमाती   है, तो चल जाता है. इस तरह स्पष्ट है कि दंड से प्रेम शक्ति विकसित नहीं होती. उसके दिल का घाव नहीं भरता. इसलिए गाँव से दंड को सर्वथा हटाकर उसकी जगह प्रेम की शक्ति का उपयोग होना चाहिए.
इस तरह हर गाँव सभा के तीन मुख्य आधार साबित होते हैं :
१ विकेन्द्रित योजना
२ सर्वसम्मति
३ प्रेम का शासन



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