पुरानी ग्राम पंचायत
यह भारत की बहुत बड़ी विशेषता थी कि यहाँ गाँव- गाँव में ग्राम संस्थाएं थीं. उनका उल्लेख ऋग्वेद में आता है. भगवान् से प्रार्थना करते हुए ऋषि कहता है :
यथा न: शमसद-द्विपदे चतुष्पदे
विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन अनातुरम.
- हमारे गाँव में सभी निरोग हों. जैसे गाय शाम को गाँव में वापस आती है, वैसे ही हे भगवन हम तुम्हारी शरण में आते हैं. हमारी वे ग्राम संस्थाएं आज टूट गयी हैं. उस ज़माने में गाँव की आवश्यकता की चीजें गाँव में ही पैदा हो जाती थीं. व्यक्तिगत मालिकी नहीं थी. सब मिल कर काम करते थे. बडई को मजदूरी नहीं मिलती थी. हर घर से उसे अनाज का थोडा-थोडा हिस्सा मिलता था. किसी घर में ज्यादा काम हो या किसी घर में कम, तो भी उसे निश्चित हिस्सा दिया जाता था. इसी तरह वेद्य, शिक्षक और दूसरे कारीगरों की भी योजना थी. यानी आज की भाषा में बोलना हो तो वह एक प्रकार की सेवा मानी जाती थी. तमिलनाडु से कश्मीर तक हमारे गाँव की यह योजना थी.
वे सारी ग्राम संस्थाएं टूट गयी हैं, क्योंकि गाँव के धंधे ख़तम कर दिए गए. वे यों ही ख़तम नहीं हुए, ख़तम करने की योजना से ख़तम किये गए. सेलम का जिला गजट पढ़ा. उसमें लिखा था कि वहां के बुनकरों का धंधा धीरे-धीरे टूटता गया. संस्कृत भाषा में 'सेलम' का अर्थ ही कपडा होता है. कुचेलन (सुदामा) यानी ख़राब कपडा पहनने वाला. सेलम जिले में करघों को बिजली से चलने की बात अभी चल रही थी. यानी हजारों साल से जो हाथ की कला चली आ रही है, उसे तोड़ने की बात! जिस विद्या को सीखने के लिए राज्य को कुछ खर्च नहीं करना पड़ा, उस विद्या को ख़तम करने के लिए पैसे खर्च किये जा रहे है.
समाज के दो टुकड़े
आज देहात के धंधे टूट गए हैं. जमीन की मालिकी भी धीरे-धीरे उनके हाथ से चंद लोगों के हाथ में चली गयी है. इसके साथ हर गाँव में एक-एक शाला थी, वह भी टूट गयी है. डाक्टर एनीबेसेंट ने एक किताब में लिखा है कि 'ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़माने में बंगाल में हर ४०० जनसँख्या के पीछे एक स्कूल था. मतलब हर गाँव में शिक्षा की योजना ग्राम सभा की तरफ से थी. उसमें सभी लोग थोडा-सा पढ़ लेते थे. आज जैसी आठ-दस साल की पढाई नहीं होती थी - यह ठीक है. लेकिन पढना-लिखना सीख लिया, चंद अच्छी-अच्छी कवितायेँ कंठ कर लीं. तैरना पेड़ पर चढ़ना, घोड़े की सवारी करना - यह सब उस ज़माने का ज्ञान था. बाकी विद्या काम करते-करते हासिल की जाती थी. गाँव में धंधे मौजूद थे, इसलिए उन-उन धंधों की विद्या तो काम करते-करते ही आ जाती थी. यह पांच हजार साल पहले की बात है.
मैं आपको उपनिषद् युग में ले जा रहा हूँ. राजा के राज्य का वर्णन है :
न में स्तेनों जनपदे न कदर्यो न मद्यप:
नानाहिताग्निर्नाविद्वान न स्वैरी, स्वेरिणी कुत: .
"मेरे राज्य में न चोर हैं, न कंजूस हैं, न कोई शराब पीने वाला है, भगवान् की पूजा न करता हो ऐसा एक भी शख्स नहीं है. पढ़ा लिखा न हो, ऐसा एक भी मनुष्य नहीं है. पुरुष दुराचारी नहीं हैं. तो स्त्रियाँ दुराचारिणी कैसे होंगी ?" दुनिया के सारे दुराचार की जिम्मेदारी पुरुष पर डाली. राज्य के सम्बन्ध में लिखा है कि मेरे राज्य में कोई अनपढ़ नहीं है. अगर यह माना जाये कि यह व्यर्थ का ही गौरव गान हो, तो बात अलग है. चाहे वह व्यर्थ का ही गौरव गान हो, फिर भी वह आदर्श राज्य था, यह तो मानना ही होगा. इस तरह जहाँ सभी लोगों को विद्या हासिल थी, उस देश में चंद लोगों को ऊँची शिक्षा और बाकी बहुत ज्यादा लोगों को बिलकुल शिक्षा नहीं, यह हालत हो गयी.
यह पूंजीवादी समाज रचना है. चंद लोग इतने महाविद्वान कि वे अपनी भाषा में बोल ही नहीं सकते, अंगरेजी में ही बोल सकते हैं, और दूसरे लोग ऐसे हैं कि अपनी भाषा भी पूरी नहीं पढ़ सकते. एक ओर विद्या के पूंजीपती और दूसरी ओर बिलकुल विद्याहीन! जैसे एक ओर बड़े-बड़े सम्पत्तिधारी और दूसरी ओर कुछ भी खाना न पाने वाले लोग! इस तरह समाज के दो तुकडे हो गए हैं. हिंदुस्तान का इससे बहुत बड़ा नुक्सान हुआ. इसे दुरुस्त करने का काम करना ही होगा. यह पहचानना चाहिए और जीवन की समस्या क्या है, इसे समझना चाहिए. हमें टूटी हुई ग्राम संस्था को पुन: खड़ा करने की प्रतिज्ञा लेनी होगी.
विनोबा भावे
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